स्त्री और पुरुष के प्रेम में फर्क है - ओशो
स्त्री और पुरुष के प्रेम में फर्क है - ओशो
अपरिचित में एक आकर्षण है, क्योंकि उसके प्रेम में कोई कारण नहीं होता..!!
जब पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है, तो उसका प्रेम भी बौद्धिक होता है। वह उसे भी सोचता-विचारता है। उसके प्रेम में भी गणित होता है। स्त्री जब किसी को प्रेम करती है, तो वह प्रेम बिलकुल अंधा होता है। उसमें गणित बिलकुल नहीं होता।
इसलिए स्त्री और पुरुष के प्रेम में फर्क पाया जाता है। पुरुष का प्रेम आज होगा, कल खो सकता है।
स्त्री का प्रेम खोना बहुत मुश्किल है। और इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच कभी तालमेल नहीं बैठ पाता। क्योंकि आज लगता है प्रेम करने जैसा, कल बुद्धि को लग सकता है न करने जैसा। और आज जो कारण थे, कल नहीं रह जाएंगे। कारण रोज बदल जाएंगे। आज जो स्त्री सुंदर मालूम पड़ती थी, इसलिए प्रेम मालूम पड़ता था; कल निरंतर परिचय के बाद वह सुंदर नहीं मालूम पड़ेगी। क्योंकि सभी तरह का परिचय सौंदर्य को कम कर देता है। अपरिचित में एक आकर्षण है। लेकिन स्त्री कल भी इतना ही प्रेम करेगी, क्योंकि उसके प्रेम में कोई कारण न था। वह उसके पूरे अस्तित्व की पुकार थी। इसलिए स्त्री बहुत फिक्र नहीं करती कि पुरुष सुंदर है या नहीं। इसलिए पुरुष सौंदर्य की चिंता नहीं करता।
स्त्री का प्रेम खोना बहुत मुश्किल है। और इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच कभी तालमेल नहीं बैठ पाता। क्योंकि आज लगता है प्रेम करने जैसा, कल बुद्धि को लग सकता है न करने जैसा। और आज जो कारण थे, कल नहीं रह जाएंगे। कारण रोज बदल जाएंगे। आज जो स्त्री सुंदर मालूम पड़ती थी, इसलिए प्रेम मालूम पड़ता था; कल निरंतर परिचय के बाद वह सुंदर नहीं मालूम पड़ेगी। क्योंकि सभी तरह का परिचय सौंदर्य को कम कर देता है। अपरिचित में एक आकर्षण है। लेकिन स्त्री कल भी इतना ही प्रेम करेगी, क्योंकि उसके प्रेम में कोई कारण न था। वह उसके पूरे अस्तित्व की पुकार थी। इसलिए स्त्री बहुत फिक्र नहीं करती कि पुरुष सुंदर है या नहीं। इसलिए पुरुष सौंदर्य की चिंता नहीं करता।
यह जान कर आप हैरान होंगे। हम सबको खयाल में आता है कि स्त्रियां इतना सौंदर्य की क्यों चिंता करती है? इतने वस्त्रों की, इतनी फैशन की, इतने गहने, इतने जवाहरातों की? तो शायद आप सोचते होंगे, यह कोई स्त्री-चित्त में कोई बात है। बात उलटी है। उलटी बात है; उलटी ऐसी है कि स्त्री-चित्त यह सारा इंतजाम इसीलिए करता है, क्योंकि पुरुष इससे ही प्रभावित होता है।
पुरुष का कोई और अस्तित्वगत आकर्षण नहीं है। इसलिए स्त्री को पूरे वक्त इंतजाम करना पड़ता है। और पुरुष एक से ही कपड़े जिंदगी भर पहनता रहता है। उसे चिंता नहीं आती, क्योंकि स्त्री कपड़ों के कारण प्रेम नहीं करती। और पुरुष हीरे-जवाहरात न पहने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता है। स्त्री हीरे-जवाहरात देखती ही नहीं। पुरुष सुंदर है या नहीं, इसकी भी स्त्री फिक्र नहीं करती। उसका प्रेम है, तो सब है। और उसका प्रेम नहीं है, तो कुछ भी नहीं है। फिर बाकी चीजें बिलकुल मूल्य की नहीं हैं। लेकिन पुरुष के लिए बाकी चीजें बहुत मूल्य की हैं।
सच तो यह है कि जिस स्त्री को पुरुष प्रेम करता है, अगर उसका सब आवरण और सब सजावट अलग कर ली जाए, तो नब्बे प्रतिशत स्त्री तो विदा हो जाएगी। और इसलिए अपनी पत्नी को प्रेम करना रोज-रोज कठिन होता चला जाता है, क्योंकि अपनी पत्नी बिना सजावट के दिखाई पड़ने लगती है। नब्बे प्रतिशत तो मेकअप है, वह विदा हो जाता है, जैसे ही हम परिचित होना शुरू होते हैं।
स्त्री ने कोई मांग नहीं की है पुरुष से, उसका पुरुष होना पर्याप्त है, और स्त्री का प्रेम है, तो यह काफी कारण है। उसका प्रेम भी इंटयूटिव है; इंटलेक्चुअल नहीं है, बौद्धिक नहीं है। और दूसरी बात, उसके प्रेम के इंटयूटिव होने के साथ-साथ उसका प्रेम पूरा है। पूरे का अर्थ है, उसके पूरे शरीर से उसका प्रेम जन्मता है।
पुरुष के पूरे शरीर से प्रेम नहीं जन्मता; उसका प्रेम बहुत कुछ जेनिटल है। इसलिए जैसे ही पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है, प्रेम बहुत जल्दी कामवासना की मांग शुरू कर देता है। स्त्री वर्षों प्रेम कर सकती है बिना कामवासना की मांग किए।
पुरुष के पूरे शरीर से प्रेम नहीं जन्मता; उसका प्रेम बहुत कुछ जेनिटल है। इसलिए जैसे ही पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है, प्रेम बहुत जल्दी कामवासना की मांग शुरू कर देता है। स्त्री वर्षों प्रेम कर सकती है बिना कामवासना की मांग किए।
सच तो यह है कि जब स्त्री बहुत गहरा प्रेम करती है, तो उस बीच पुरुष की कामवासना की मांग उसको धक्का ही देती है, शॉक ही पहुंचाती है। उसे एकदम खयाल भी नहीं आता कि इतने गहरे प्रेम में और कामवासना की मांग की जा सकती है..! मैं सैकड़ों स्त्रियों को, उनके निकट, उनकी आंतरिक परेशानियों से परिचित हूं। अब तक मैंने एक स्त्री ऐसी नहीं पाई, जिसकी परेशानी यह न हो कि पुरुष उससे निरंतर कामवासना की मांग किए चले जाते हैं। और हर स्त्री परेशान हो जाती है। क्योंकि जहां उसे प्रेम का आकर्षण होता है, वहां पुरुष को सिर्फ काम का आकर्षण होता है। और पुरुष की जैसे ही काम की तृप्ति हुई, पुरुष स्त्री को भूल जाता है।
स्त्री को निरंतर यह अनुभव होता है कि उसका उपयोग किया गया है, शी हैज बीन यूज्ड, प्रेम नहीं किया गया, उसका उपयोग किया गया है। पुरुष को कुछ उत्तेजना अपनी फेंक देनी है। उसके लिए स्त्री का एक बर्तन की तरह उपयोग किया गया है। और उपयोग के बाद ही स्त्री व्यर्थ मालूम होती है। लेकिन स्त्री का प्रेम गहन है, वह पूरे शरीर से है, रोएं-रोएं से है। वह जेनिटल नहीं है, वह टोटल है।
कोई भी चीज पूर्ण तभी होती है, जब वह बौद्धिक न हो। क्योंकि बुद्धि सिर्फ एक खंड है मनुष्य के व्यक्तित्व का, पूरा नहीं है वह, इसलिए स्त्री असल में अपने बेटे को जिस भांति प्रेम कर पाती है, उस भांति प्रेम का अनुभव उसे पति के साथ कभी नहीं हो पाता। पुराने ऋषियों ने तो एक बहुत हैरानी की बात कही है।
उपनिषद के ऋषियों ने आशीर्वाद दिया है नवविवाहित वधुओं को और कहा है कि तुम अपने पति को इतना प्रेम करना, इतना प्रेम करना, कि अंत में दस तुम्हारे पुत्र हों और ग्यारहवां पुत्र तुम्हारा पति हो जाए। उपनिषद के ऋषि यह कहते हैं कि स्त्री का पूरा प्रेम उसी दिन होता है, जब वह अपने पति को भी अपने पुत्र की तरह अनुभव करने लगती है। असल में, स्त्री अपने पुत्र को पूरा प्रेम कर पाती है; उसमें कोई फिर बौद्धिकता नहीं होती। और अपने बेटे के पूरे शरीर को प्रेम कर पाती है; उसमें कोई चुनाव नहीं होता। और अपने बेटे से उसे कामवासना का कोई रूप नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए प्रेम उसका परम शुद्ध हो पाता है। जब तक पति भी बेटे की तरह न दिखाई पड़ने लगे, तब तक स्त्री पूर्ण तृप्त नहीं हो पाती है।
लेकिन पुरुष की स्थिति उलटी है। अगर पत्नी उसे मां की तरह दिखाई पड़ने लगे, तो वह दूसरी पत्नी की तलाश पर निकल जाएगा। पुरुष मां नहीं चाहता, पत्नी चाहता है। और भी ठीक से समझें, तो पत्नी भी नहीं चाहता, प्रेयसी चाहता है। क्योंकि पत्नी भी स्थायी हो जाती है। प्रेयसी में एक अस्थायित्व है और बदलने की सुविधा है। पत्नी में वह सुविधा भी खो जाती है।
स्त्री का चित्त समग्र है, इंटिग्रेटेड है। स्त्रियों का नहीं कह रहा हूं। जब भी मैं स्त्री शब्द का उपयोग कर रहा हूं, तो स्त्रैण अस्तित्व की बात कर रहा हूं..!!
स्त्री का चित्त समग्र है, इंटिग्रेटेड है। स्त्रियों का नहीं कह रहा हूं। जब भी मैं स्त्री शब्द का उपयोग कर रहा हूं, तो स्त्रैण अस्तित्व की बात कर रहा हूं..!!
अति सुंदर ज्ञानवर्धक इससे आगे कुछ नहीं बोलूंगा सर
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