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    पर्दे पर जो स्त्री दिखाई पड़ रही है, वह कहीं नहीं है - ओशो


    पर्दे पर जो स्त्री दिखाई पड़ रही है, वह कहीं नहीं है - ओशो 

           अभी अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब जब तक अमेरिका में फिल्म-टेलीविजन हैं, तब तक कोई पुरुष किसी स्त्री से तृप्त नहीं होगा और कोई स्त्री किसी पुरुष से तृप्त नहीं होगी।

             क्यों? क्योंकि टेलीविजन ने और सिनेमा के पर्दे ने स्त्रियों और पुरुषों की ऐसी प्रतिमाएं लोगों को दिखा दीं, जैसी प्रतिमाएं यथार्थ में कहीं भी मिल नहीं सकतीं; झूठी हैं, बनावटी हैं। फिर यथार्थ में जो पुरुष और स्त्री मिलेंगे, वे बहुत फीके-फीके मालूम पड़ते हैं। कहां तस्वीर फिल्म के पर्दे पर, कहां अभिनेत्री फिल्म के पर्दे पर और कहां पत्नी घर की! घर की पत्नी एकदम फीकी-फीकी, एकदम व्यर्थ-व्यर्थ, जिसमें नमक बिलकुल नहीं, बेरौनक, साल्टलेस मालूम पड़ने लगती है। स्वाद ही नहीं मालूम पड़ता। पुरुष में भी नहीं मालूम पड़ता।

            फिर दौड़ शुरू होती है। अब उस स्त्री की तलाश शुरू होती है, जो पर्दे पर दिखाई पड़ी। वह कहीं नहीं है। वह पर्दे वाली स्त्री भी जिसकी पत्नी है, वह भी इसी परेशानी में पड़ा है। इसलिए वह कहीं नहीं है। क्योंकि घर पर वह स्त्री साधारण स्त्री है। पर्दे पर जो स्त्री दिखाई पड़ रही है, वह मैन्यूवर्ड है, वह तरकीब से प्रस्तुत की गई है, वह प्रेजेंटेड है ढंग से। सारी टेक्नीक, टेक्नोलाजी से, सारी आधुनिक व्यवस्था से–कैमरे, फोटोग्राफी, रंग, सज्जा, सजावट, मेकअप–सारी व्यवस्था से वह पेश की गई है। उस पेश स्त्री को कहीं भी खोजना मुश्किल है। वह कहीं भी नहीं है। वह धोखा है।

            लेकिन वह धोखा मन को आंदोलित कर गया। आहार हो गया। उस स्त्री का आहार हो गया भीतर। अब उस स्त्री की तलाश शुरू हो गई; अब वह कहीं मिलती नहीं। और जो भी स्त्री मिलती है, वह सदा उसकी तुलना में फीकी और गलत साबित होती है।

           अब यह चित्त कहीं भी ठहरेगा नहीं। अब इस चित्त की कठिनाई हुई। यह सारी की सारी कठिनाई बहुत गहरे में गलत आहार से पैदा हो रही है।

    -ओशो

    गीता दर्शन–(भाग–2) (अध्याय–4) प्रवचन–40

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